चुनावी बॉण्ड किसने खरीद कर किसको दिया यह बात अभी भी रहस्यमय, चुनावों के बाद लकीर न पीटता रह जाए विपक्ष!

लिमटी की लालटेन 624

इलेक्टोरल बॉण्ड के जरिए क्या वास्तव में चुनावी चंदे को पारदर्शी बना पाई केंद्र सरकार!

(लिमटी खरे)

चुनावी बॉण्ड का जिन्न बोतल से बाहर आया तो है पर यह दो तीन माह बाद ही कहीं गायब न हो जाए। सरकार ने 2016 और 2017 के वित्त अधिनियम के माध्यम से चुनावी बांड योजना शुरू करने के लिए चार अधिनियमों में संशोधन किया था। ये संशोधन अधिनियम लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, (आरपीए), कंपनी अधिनियम, 2013, आयकर अधिनियम, 1961, और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (एफसीआरए), 2016 और 2017 के वित्त अधिनियमों के माध्यम से थे। 2017 में केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को वित्त विधेयक के रूप में सदन में पेश किया था। संसद से पास होने के बाद 29 जनवरी 2018 को इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की अधिसूचना जारी की गई थी।

चुनावी बॉण्ड योजना आरंभ हुए छः साल बीत चुके हैं। सियासी मामलों में रूचि रखने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्मस एडीआर के द्वारा इस संबंध में सवालों के जखीरे के साथ देश की शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया गया था। भारतीय स्टेट बैंक जिसके द्वारा चुनावी बॉण्ड बेचे गए थे, उसके द्वारा शीर्ष अदालत के सामने जिस तरह समय मांगा गया और फिर एक ही झटके में एक ही दिन में जानकारी मुहैया करवा दी गई उसे देखकर एसबीआई की मंशाएं भी कटघरे में ही दिखाई दे रही हैं।

एसबीआई के द्वारा जो जानकारी दी गई है और जिस जानकारी को चुनाव आयोग के द्वारा अपनी वेब साईट पर डाला गया है, वह दो भागों में है। स्टेट बैंक के द्वारा यह क्यों किया गया यह तो प्रबंधन जाने पर यह बात साफ है कि एक जानकारी खरीदने वालों की है और दूसरी जानकारी उसे भुनाने वालों की। इन दोनों ही जानकारियों में किसने खरीदे और किसने भुनाए यह तो स्पष्ट है पर किस बाण्ड को किसने भुनाया यह स्पष्ट नहीं है। इसमें बाण्ड क्रमांक भी गायब है। यूनिक नंबर अभी तक बैंक प्रबंधन के द्वारा मुहैया नहीं कराया गया है। ऐसी स्थिति में खुलासा हो तो आखिर कैसे हो!

विपक्ष इस मामले में सरकार पर हमलावर ही नजर आ रहा है। विपक्ष की धार उतनी पैनी नहीं दिखाई दे रही है जो चुनावों के दौरान अमूमन रहा करती है। इसी बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रतिक्रिया भी इस मामले में आ गई है। संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कहा है कि इस मामले को ज्यादा तवज्जो देने की आवश्यकता नहीं है। यह एक प्रयोग है और इसकी प्रभावशीलता और लाभ समय के साथ निर्धारित होंगे। उनका कहना था कि नए बदलाव जब भी प्रस्तुत होते हैं तब उस पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक ही है।

मजे की बात तो यह है कि जिन बड़े घरानों के नाम लेकर विपक्ष विशेषकर कांग्रेस के द्वारा नरेंद्र मोदी सरकार को घेरा जाता था कि अंबानी और अड़ानी के द्वारा सरकार चलाई जा रही है, के नाम इस योजना में दानदाताओं की सूची में नहीं दिखाई देने से विपक्ष को निराश होना स्वाभाविक ही है। वैसे यह जांच का विषय है कि जिन कंपनियों के द्वारा बॉण्ड के जरिए राजनैतिक चंदा दिया है उनका कितना हित सियासी दलों के द्वारा साधा गया है। क्योंकि बॉण्ड को सरकार में बैठी भाजपा और सहयोगी दलों के अलावा विपक्ष के दलों के द्वारा भी भुनाया गया है।

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देश में आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस को लोग अब दूसरे नंबर की सियासी पार्टी का अघोषित दर्जा भले ही दे रहे हों, पर आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि कुल दान का 47.5 फीसदी हिस्सा भाजपा को तो 12.6 फीसदी हिस्सा ममता बनर्जी वाली त्रणमूल कांग्रेस एवं महज 11.1 फीसदी हिस्सा कांग्रेस को मिला है। चौथे नंबर पर तेलंगाना की के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली भारत राष्ट्र समिति को 1,215 करोड़ रुपये और बीजू जनता दल को 776 करोड़ रुपये के साथ पांचवा स्थान प्राप्त हुआ है। अब आप ही बताएं कि क्या कांग्रेस दूसरे स्थान पर है, जाहिर है कांग्रेस तीसरी पायदान पर फिसल चुकी है। यह बात कांग्रेस के रणनीतिकार पता नहीं कब समझ पाएंगे!

विपक्ष का यह भी आरोप है कि सरकारी एजेंसीस के द्वारा की गई कार्यवाही के उपरांत अनेक संस्थानों से चुनावी बॉण्ड खरीदे हैं! पर चुनाव आयोग की वेब साईट पर डाली गई जानकारी को अगर बारीकी से देखें तो अनेक लोगों ने खुद के नाम से बॉण्ड खरीदे हैं। ये शख्सियतें कौन हैं, इस बारे में पता लगवाने की मांग कौन करेगा! क्या एडीआर नामक गैर राजनैतिक संस्था ने ही यह जिम्मा लिया हुआ है! विपक्ष आखिर क्या कर रहा है। अगर सरकार की चुनावी बॉण्ड योजना विपक्ष को नापसंद थी तो उसने इस योजना का लाभ उठाते हुए हजारों करोड़ रूपए का चंदा क्यों लिया! जब इस योजना को कानून का रूप दिया जा रहा था तब सदन में विपक्ष ने वजनदारी के साथ अपनी बात क्यों नहीं रखी! किसी ने अगर इस योजना के तहत विपक्षी दलों को चंदा दिया था तो उस चंदे को विपक्ष ने स्वीकार क्यों किया! न जाने इस तरह के कितने प्रश्न देश के हर नागरिक के दिमाग में घुमड़ रहे होंगे!

जैसा कि हमने आरंभ में कहा कि इस मामले को विपक्ष उतने जोर शोर से नहीं उठा पा रहा है, जितना चुनावी बेला में उठाया जाना चाहिए था। विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने आधी सदी से ज्यादा समय तक देश पर शासन किया है। कांग्रेस के पास अपने समय के वित्त मंत्रियों की फौज है। इसके अलावा भारतीय स्टेट बैंक के पदाधिकारियों की तैनाती के द्वौरान भी कांग्रेस ने न जाने कितने लोगों को उपकृत किया होगा, तब कांग्रेस के लिए इलेक्टोरल बाण्ड की सही, असली और प्रमाणिक जानकारी निकालना मिनटों का खेल है, पर जिस तरह से विपक्ष के कदमताल दिख रहे हैं उसे देखकर यही लगने लगा है कि चुनाव के बाद इलेक्टोरल बाण्ड योजना को भी अन्य मामलों की तरह ठण्डे बस्ते के हवाले कर दिया जाएगा और इसका सच शायद ही देश की जनता के सामने आ सके।

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(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)