किस गठबंधन की ओर झुकेगा पलड़ा!

(अजित द्विवेदी)

विपक्षी पार्टियों के नेता इस भरोसे में हैं कि वे गठबंधन बना लेंगे और भाजपा को हरा देंगे। दूसरी ओर भाजपा भी इस भरोसे में है कि वह राज्यों में गठबंधन कर लेगी और उसके सहारे अपने विरोधियों को परास्त कर देगी। पर यह इतना सरल नहीं है, न कांग्रेस के लिए और न भाजपा के लिए और न दूसरे प्रादेशिक क्षत्रपों के लिए, जो चुनाव से पहले ही अपनी जीती हुई सीटों की संख्या गिन रहे हैं। गठबंधन के बावजूद उनको बड़ा झटका लग सकता है, जैसा पहले भी कई बार, कई पार्टियों को लग चुका है।

मजबूत गठबंधन बनाने के बावजूद चुनाव हार जाने की अनगिनत मिसाले हैं पर पिछले पांच साल के कुछ उदाहरण इसे समझने के लिए पर्याप्त होंगे। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने तालमेल किया था। तब लग रहा था कि ईवीएम में से इनकी आंधी निकलने वाली है पर क्या हुआ! उससे एक साल पहले 2016 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चे ने तालमेल किया था और त्रिकोणात्मक लड़ाई में इनके जीतने का अनुमान लगाया जा रहा था पर वहां भी गठबंधन बुरी तरह हारा।

उससे एक साल पहले 2015 में बिहार में भाजपा ने लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और हिंदुस्तान अवाम मोर्चा के साथ तालमेल किया था पर गठबंधन मुंह के बल गिरा। और उससे एक साल पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तमिलनाडु में आधा दर्जन से ज्यादा पार्टियों के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था पर उसका गठबंधन राज्य की 39 में सिर्फ दो सीट जीत पाया।

सो, इस बार भी भाजपा ने तमिलनाडु में अन्ना डीएमके और पीएमके के साथ जो गठबंधन किया है वह जीत की गारंटी नहीं है। तमिलनाडु में यह पहली बार हो रहा है कि दो गठबंधनों का मुकाबला होगा। एक तरफ भाजपा, अन्ना डीएमके और पीएमके का गठबंधन है तो दूसरी ओर डीएमके, कांग्रेस, एमडीएमके, वीसीके, पीटी आदि पार्टियों का गठबंधन है। इस गठबंधन का पलड़ा इसलिए भारी दिख रहा है क्योंकि अन्नाडीएमके लगातार दूसरी बार राज्य का चुनाव जीती है, जो तमिल राजनीति में एक असामान्य सी बात है। दूसरे, लोकसभा की 39 में से 37 सीटें उसके पास हैं। तीसरे, जयललिता के नाम से बनी उनकी पुरानी सहयोगी वीके शशिकला और टीटीवी दिनाकरण की पार्टी अलग चुनाव लड़ेगी, जिससे अन्नाडीएमके को नुकसान होगा। इस बार के लोकसभा चुनाव की एक खास बात यह होनी है कि चंद राज्यों को छोड़ कर हर जगह गठबंधन चुनाव लड़ेगा। दो गठबंधनों के बीच ही मुकाबला होगा। सो, या तो किसी एक गठबंधन की हार होगी या यह भी हो सकता है कि दोनों गठबंधनों में थोड़े बहुत अंतर के साथ मुकाबला बराबरी का रहे। ऐसे में देश की राजनीति का फैसला उन राज्यों से होगा, जहां मतदाता निर्णायक फैसला देंगे। यानी किसी एक पार्टी या एक गठबंधन के पक्ष में छप्पर फाड़ वोट पड़े, जैसा पिछली बार भाजपा के पक्ष में हुआ था।

बहरहाल, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने तालमेल किया है। इन तीनों का वोट मिला कर भाजपा को मिले वोट के बराबर होते हैं। अगर दोनों अपना वोट बैंक बचा लेते हैं तो भी पलड़ा भाजपा के पक्ष में झुक सकता है क्योंकि औसतन सात फीसदी वोट हासिल करने वाली कांग्रेस अलग लड़ रही है। तीन राज्यों में चुनाव जीतने और प्रियंका गांधी वाड्रा के सक्रिय राजनीति में उतरने से उत्साहित कांग्रेस जितना जोर लगा कर लड़ेगी, सपा और बसपा के गठबंधन के उतना नुकसान पहुंचाएगी। सो, तीन प्रादेशिक क्षत्रपों ने तालमेल कर लिया इससे जीत की गारंटी नहीं हो गई। सपा और बसपा का गठबंधन बिहार के राजद और जदयू के सफल प्रयोग से प्रेरित है। पर वहां कांग्रेस ने कोई तीसरा कोण नहीं बनाया था, बल्कि कांग्रेस राजद और जदयू गठबंधन का ही हिस्सा थी। दूसरे, राजद और जदयू दो अलग गोत्र की पार्टियां नहीं थीं, बल्कि मंडल की राजनीति से निकले जनता दल का हिस्सा थीं। इसके उलट सपा और बसपा बिल्कुल दो अलग राजनीति से निकली पार्टियां हैं, जिनके मतदाता हमेशा आपस में लड़ते रहे हैं।

इसी तरह बिहार में भाजपा अपने दो पुराने सहयोगियों के साथ है और उसके मुकाबले राजद-कांग्रेस ने आधा दर्जन पार्टियों का गठबंधन बनाया है। पर इस गठबंधन में जीत का रसायन नहीं दिख रहा है। केंद्र व राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा व जदयू को हराने के लिए बाकी पार्टियां एक साथ आ तो रही हैं पर उनमें जमीनी तालमेल नहीं है और न एक दूसरे पर भरोसा बन रहा है। सीट बंटवारे की खींचतान ने ही उनके कार्यकर्ताओं को दुविधा में डाल दिया है। नीतीश के मुकाबले किसी करिश्माई नेता की कमी भी उनकी मुश्किल बढ़ा रही है।

तमिलनाडु की तरह दो गठबंधनों का दिलचस्प मुकाबला महाराष्ट्र में होगा, जहां भाजपा और शिव सेना ने सीटों का बंटवारा कर लिया है और कांग्रेस व एनसीपी भी जल्दी ही सीटों की घोषणा करने वाले हैं। पिछले लोकसभा में भी कांग्रेस और एनसीपी मिल कर लड़े थे पर केंद्र की दस साल और राज्य की 15 साल की एंटी इन्कंबैंसी ने उनको फेल कर दिया था। इस बार केंद्र व राज्य की एंटी इन्कंबैंसी और उन दोनों की पांच साल की लड़ाई उनकी संभावना को कमजोर कर रही है। शरद पवार के फिर से लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा और प्रधानमंत्री पद की उनकी अघोषित दावेदारी से महाराष्ट्र में पलड़ा कांग्रेस-एनसीपी की ओर झुक सकता है।

एक और गठबंधन पश्चिम बंगाल में बन रहा है, जहां कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चा मिल कर लड़ने वाले हैं। पर ममता बनर्जी ने बहुत प्रयास करके लड़ाई को तृणमूल कांग्रेस बनाम भाजपा का बनाया है, जिस पर इस गठबंधन का कोई असर नहीं होगा। तमिलनाडु और महाराष्ट्र की तरह कर्नाटक तीसरा राज्य है, जहां कांग्रेस गठबंधन का पलड़ा भारी हो सकता है। वहां कांग्रेस और जेडीएस एक दूसरे के पूरक के तौर पर दिख रहे हैं।

(साई फीचर्स)