(श्रुति व्यास)
चुनाव एक तरह की जुआबाजी ही हैं। तय नहीं होता, कोई भी पक्के तौर पर कह नहीं सकता कि नतीजा क्या निकलेगा। जो महत्वपूर्ण होता है, असल बात जो होती है वह प्रचार, कैंपेन होता है। कैपेन जिससे खेल बन सकता है, पांसा सटीक पड सकता है। एक अच्छा व धुंआधार प्रचार ही चुनाव की दिशा तय करता है। भाजपा के पास स्टार प्रचारक के रूप में नरेंद्र मोदी हैं। उनके पास जोरदार चुनाव प्रचार के लिए हर तरह का नुस्खा है, वे मंजे हुए भी हैं। दूसरी ओर कांग्रेस के पास राहुल गांधी हैं जिनके पास ऐसे और इतने संसाधन नहीं है जिससे रक्षात्मक और मारक प्रचार उनका बन पाए। तभी जो चुनावी परिदृश्य बन रहा है वह लगभग 2014 जैसा ही है। बावजूद इसके इस दफा प्रियंका गांधी वाडरा के आधिकारिक रूप से राजनीति में आने से सियासी लेंडस्कैप में एक ऐसा ग्रे एरिया, संभावना बनी है जिसमें कुछ उम्मीद भी हो सकती है।
ऐसी उम्मीद जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी से की जा रही थी, वही आज प्रियंका गांधी को ले कर भी की जा रही है। हालांकि चापलूसों की जमात कह सकती है कि ऐसा कहना जल्दबाजी है। ऐसा सोचना राष्ट्र-विरोधी है। हां, यदि किसी और पर सोचे और मोदी के खिलाफ कुछ भी हो तो वह राष्ट्र-विरोधी माना ही जाएगा। प्रियंका के मामले में हर दावे को अंड-बंड बताते हुए उसे खारिज किया जा रहा है।
लेकिन हकीकत से कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता। प्रियंका गांधी जिस तरह से राजनीति के राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरी हैं उससे देश भर में एक कौतुकपूर्ण लहर बनी है। हो सकता है भाजपा इससे इनकार करती रहे और गठबंधन इसे कमतर आंकते रहें, लेकिन अगर छोटे-छोटे मुद्दों, जैसे कई मंदिरों में चले जाने या लाल बहादुर शास्त्री की प्रतिमा पर माला पहनाने का प्रसंग हो, पर यदि प्रियंका पर कड़े हमले होने लगें तो इससे घबराबट साफ तौर पर दिखाई देती है।
राजनीति में प्रियंका गांधी के पदार्पण का लंबे समय से इंतजार हो रहा था। 1999 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने साफ-साफ यह संदेश दिया था कि राजनीति में आने को लेकर उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। लेकिन बीस साल बाद उनकी वह अनिच्छा आज एक दृढ़संकल्प और जरूरत में तब्दील हो चुकी है। हालांकि प्रियंका के लिए यह कोई नया काम नहीं है। अमेठी और रायबरेली में अपनी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के लिए वे लंबे समय से काम करती रही हैं और सब कुछ संभाल रही हैं। इसलिए उन्हें खासा अनुभव है। लेकिन आधिकारिक तौर पर प्रचार अभियान की जिम्मेदारी संभालना जरा अलग तरह का खेल है।
सवाल है लोकसभा चुनाव से ठीक पहले प्रियंका का राजनीति में प्रवेश अंततः क्या और कितना असर बना पाएगा? प्रियंका की हालिया गंगा यात्रा ने उनकी शैली, उनकी प्राथमिकताओं को ले कर पहेलियां बनाई है। इलाहाबाद से वाराणसी तक उन्होंने जिस सुनियोजित तरीके से यात्रा की, वह बड़े संकेत लिए हुए थी।
इलाहाबाद प्रियंका के पड़दादा की जन्मस्थली है, वे वहां अपने पूर्वजों के पैतृक घर स्वराज भवन में रात भर रुकीं और अपनी दादी इंदिरा गांधी के कमरे वाली तस्वीर के साथ उन्होंने ट्वीटर पर इतिहास को लोगों से शेयर किया। उन्होंने यह संदेश दिया कि भारत के गौरवपपूर्ण इतिहास में उनका परिवार और कांग्रेस पार्टी हमेशा से ही भारत का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और आज भी हैं। आज जब बालाकोट कार्रवाई को लेकर संघ, भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार नेहरू और गांधी परिवार पर निशाना साध रही है और कांग्रेस पर आतंकवादियों से हमदर्दी रखने और पाकिस्तान की भाषा बोलने जैसे गंभीर आरोप लगाए जा रहे है तो ऐसे में प्रियंका का इलाहबाद से संदेश काफी महत्त्वपूर्ण है।
अपनी यात्रा का समापन उन्होने प्रधानमंत्री के गढ़ वाराणसी में किया। वाराणसी से गंगा यात्रा का समापन बिना कुछ कहे उत्तरप्रदेश के लोगों को अंहम संदेश था। वही वाराणसी, जिसमें पांच साल से क्योटो शहर में बदलने की आस रही है लेकिन वाराणसी में प्रियंका पहुंची तो मंदिर परिसर इलाके की तस्वीरे याद करा रही थी कि कही अफगानिस्तान के किसी खंड- खंड, जर्जर शहर में तो नहीं है। कहीं कोई हरियाली नहीं, सड़कों पर धूल उड़ती हुई, सड़ांध मारते घाट और गलियां और टूटे ध्वस्त पुराने मंदिर पुर्ननिर्माण के नाम पर। जाहिर है भारत की आजादी की लड़ाई के केंद्र रहे इलाहाबाद से वाराणसी तक की यात्रा में प्रियंका ने बिना किसी का नाम लिए संदेश साफ दिया है कि वे अब कड़े मुकबले के लिए तैयार हैं, जो वाकई होगा।
नाव पर इलाहाबाद से वाराणसी की गंगा यात्रा का उनका फैसला इसलिए कामयाब रहा क्योंकि वे लोगों से जगह-जगह मिलती गईं, अनौपचारिक मुलाकातें कीं और इससे उनका प्रचार भी धमाकेदार रहा। हालांकि यह बहुत ही खेद और चिंता का विषय है और हकीकत है कि मीडिया ने उनकी इस गंगा यात्रा को कोई खास तवज्जो नहीं दी। प्राइम टाइम में भी हल्के-फुल्के तौर दिखाया गया। अखबारों में भी पहले पन्ने पर कोई खास जगह नहीं मिली।
पर यात्रा के चश्मदीदो ने प्रियंका के प्रचार के दौरान लोगों, जनसमूहों की भीड़ और उसके जबर्दस्त असर को सचमुच बूझा। तीन दिन की इस यात्रा में उनके साथ चलने वाले इस पीढ़ी के पत्रकारों, जिन्होंने इंदिरा गांधी के बारे में सिर्फ पढ़ा भर है, को यह लगा है और भरोसा भी हुआ है कि प्रियंका में एक तरह का करिश्मा, चमत्कार तो है। इंदिरा गांधी के बाद अब तक ऐसे करिश्माई व्यक्तित्व से कांग्रेस वंचित ही रही। प्रियंका के व्यक्तित्व और निजी तौर पर लगाव ने हर गांव पर एक अमिट छाप छोड़ी है। लोग इस बात से खुश हैं कि कई सालों में किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता ने उनके गांव में कदम रखा। किसी ने आकर उनकी सुध ली। यही नहीं वे लोगों से, कलाकारों-दस्तकारों से, स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नौजवानों व छात्रों से सीधा संवाद कर रही हैं।
तीसरी बात उदार हिंदुत्व को लेकर है। गंगा यात्रा का उनका मूल मकसद इस बात का संदेश देना था कि वे एक सच्ची हिंदू हैं। इस यात्रा के दौरान वे जहां-जहां भी मंदिरों में गईं, उससे उनकी सच्चे हिंदू होने की छवि और पुख्ता हुई। अपने पूर्वजों की तरह उन्होंने भी बड़ी चतुराई से इस बात का ख्याल रखा कि एक महिला के नाते पूजा और दर्शनों के क्या नफे-नुकसान हो सकते हैं। इससे महिलाओं में खासा संदेश गया। उन्होंने महिलाओं से जुड़े मंदिरों को चुना और इसका फायदा यह हुआ कि वहां महिला श्रद्धालुओं की भीड़ जुटने में कोई कमी नहीं रही। वाराणसी में उन्होंने शीतला माता के मंदिर में पूजा की, विंध्याचल के मंदिर में पूजा-अर्चना की, जहां सभी वर्गों और समुदायों की महिलाएं हर मौके पर जाती हैं।
दरअसल गंगा के रास्ते अपनी इस नौका-यात्रा से प्रियंका ने एक विचार को जन्म दिया है। ऐसा विचार जिसकी राजनीतिक तौर पर उनसे अपेक्षा की जा रही थी। उनमें सारी की सारी वही खूबियां निकल कर आईं हैं या लोगों ने बूझा है जो उनकी दादी इंदिरा गांधी में थीं। बस फर्क इतना ही कि उसके कुछ रूपों को उन्हें साकार करके दिखाना है। कांग्रेस के पार्टी कार्यकर्ता उन्हें लेकर पहले ही आश्वस्त हो चुके हैं कि प्रियंका पूरी तरह से सक्षम हैं, आकर्षक राजनेता हैं जो व्यापक स्तर पर लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकती हैं और पार्टी को संकट से उबार सकती हैं।
लेकिन नरेंद्र मोदी जैसे स्टार प्रचारक जिन्होंने यह साबित कर दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया के जरिए भी हर जगह उनकी पहुंच बनी रहेगी और नेहरू-गांधी परिवार दुष्प्रचार का शिकार बना रहेगा तो ऐसे में प्रियंका के लिए प्रमुख चुनौती यही है कि वे कैसे नरेंद्र मोदी के एकाधिकारी प्रचार के बीच अपनी जगह बना सकेगी? हालांकि उनकी शुरुआत ने सही जगह निशाना साधा है, लेकिन इतना भर पर्याप्त नहीं है। उन्हें एक ऐसी चाक-चौबंद योजना बनानी होगी, ऐसे तरीके तय करने होंगे जिससे जिसमें वे सिर्फ अपने प्रचार क्षेत्र, उत्तरप्रदेश में ही नहीं बल्कि देशभर में बार-बार चर्चाओं के बीच रहे। उनमें सब तरफ लोग करिश्मा खोजते हुए सोचे कि इंदिरा गांधी और प्रियंका में क्या समरूपताए है। शैली में, भाषण में, आस्था में करिश्में वाली बाते क्या दृक्या है? तभी चुनाव 2019 में प्रियंका अपनी छाप छोड पाएगी? वे सफल हो सकेगी?
(साई फीचर्स)
समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया देश की पहली डिजीटल न्यूज एजेंसी है. इसका शुभारंभ 18 दिसंबर 2008 में किया गया था. समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया में देश विदेश, स्थानीय, व्यापार, स्वास्थ्य आदि की खबरों के साथ ही साथ धार्मिक, राशिफल, मौसम के अपडेट, पंचाग आदि का प्रसारण प्राथमिकता के आधार पर किया जाता है. इसके वीडियो सेक्शन में भी खबरों का प्रसारण किया जाता है. अगर आप समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया को खबरें भेजना चाहते हैं तो व्हाट्सएप नंबर 9425011234 या ईमेल samacharagency@gmail.com पर खबरें भेज सकते हैं. खबरें अगर प्रसारण योग्य होंगी तो उन्हें स्थान अवश्य दिया जाएगा.