(शशांक राय)
वैसे तो भारतीय जनता पार्टी हर चुनाव हिंदू और मुस्लिम या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के मुद्दे पर लड़ती रही है। नब्बे के दशक में गर्व से कहो हम हिंदू हैं और जय श्रीराम का नारा पहली बार सुनाई दिया और इसे सबसे सफल राजनीतिक नारा माना गया। राम रथयात्रा, राम मंदिर आंदोलन, समान नागरिक संहिता आदि ऐसे एजेंडे हैं, जिनसे भाजपा की राजनीति और धारदार बनी। जहां तक नरेंद्र मोदी का सवाल है तो उन्होंने गुजरात के चारों चुनाव हिंदू अस्मिता के मुद्दे पर ही लड़ें हैं।
2002 में गुजरात में हुए दंगों की पृष्ठभूमि में वहां के बाद के सारे चुनाव हुए। वैसे भी गुजरात को संघ की प्रयोगशाला पहले से कहा जाता था। पिछला लोकसभा चुनाव एक अपवाद था, जिसमें खुल कर हिंदू-मुस्लिम की राजनीति नहीं हुई। हालांकि नरेंद्र मोदी के चेहरे से हिंदुत्व की एक मजबूत अंतरधारा बन गई थी। पर ऊपर से चुनाव आकांक्षाओं का था, भ्रष्टाचार विरोध का था, अमीर-गरीब का था और जातियों का था।
तभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने अपनी जाति पर सबसे ज्यादा जोर दिया। उन्होंने जगह जगह अपने चायवाला होने पर जोर दिया और अपनी नीची जाति का जिक्र किया। उन्होंने अपने को पिछड़ी जाति के नेता के तौर पर पेश करके बड़ी जातीय गोलबंदी कराई। पर इस बार किसी और चीज से ज्यादा राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का मुद्दा मुखर है। खुद प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं में सबसे ज्यादा जोर इसी बात पर है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद अमित शाह का चुनाव प्रचार मोटे तौर पर हिंदू मतदाताओं को गोलबंद करने वाला रहा है। इसी क्रम में 2017 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी ने शमशान और कब्रिस्तान का जुमला बोला था। या बिहार में अमित शाह ने कहा था कि अगर भाजपा हारी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे या 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी ने कहा कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस पाकिस्तान के साथ मिल कर साजिश कर रही है। या कर्नाटक में टीपू सुल्तान की जयंती के विरोध के नाम पर भाजपा प्रचार किया।
इस बार का लोकसभा चुनाव इसी प्रचार का विस्तार है। मोदी और शाह ने पिछले पांच साल राज्यों के प्रचार में जो मुद्दे उठाए उन्हीं को अलग तरीके से इस बार आजमाया जा रहा है। सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण कराने वाले मुद्दे इस बार राष्ट्रीय स्तर पर आजमाए जा रहे हैं। इनकी राजनीतिक सफलता के बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है पर सामाजिक और सांप्रदायिक बिखराव जरूर तेज हो जाएगा।
प्रधानमंत्री खुद इस स्तर पर जाकर प्रचार कर रहे हैं कि कांग्रेस ने हिंदू आतंकवाद का जुमला गढ़ा था और देश की जनता इसके लिए उसे माफ नहीं करेगी। उन्होंने शुरू के पांच-छह दिन फोकस राष्ट्रवाद के मुद्दे पर रखा। पाकिस्तान को ठोक देने का जिक्र विस्तार से करते रहे और प्रयास किया कि विपक्ष को राष्ट्र दोही ठहराया जाए। उसके बाद अचानक वे हिंदू-मुस्लिम की राजनीति पर उतर आए। कई बरस पुराना गड़ा मुर्दा उखाड़ कर उन्होंने हिंदू आतंकवाद के मुद्दे पर कांग्रेस को घेरा।
कांग्रेस अध्यक्ष पर इस बात के लिए हमला किया कि वे अल्पसंख्यक बहुलता वाली वायनाड सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि राष्ट्रवाद के मुद्दे से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संभावना जब बहुत मजबूत नहीं दिखी तो सीधे सीधे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा बनाना जरूरी समझा गया। तभी अरुण जेटली, फिर अमित शाह और फिर नरेंद्र मोदी तीनों ने हिंदू आतंकवाद का मुद्दा उठाया। मोदी ने खुद जुमला बोला की बहुसंख्यक हिंदू जाग गया है। हिंदू को जगाना इस बार भाजपा का मुख्य चुनावी हथियार है।
प्रधानमंत्री जितने आक्रामक अंदाज में अपनी सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करते थे। नमो एप के जरिए अपने नेताओं को समझाते थे कि वे सरकार के कामों को गांव गांव तक पहुंचाएं। उससे लग रहा था कि वे अपनी सरकार की उपलब्धियों पर चुनाव लड़ेंगे। पर उसका उलटा हो रहा है। अब सरकार की उपलब्धियों का जिक्र नहीं हो रहा है। अब सिर्फ आतंकवाद, पाकिस्तान, मुसलमान, हिंदू जागरूकता आदि का जिक्र हो रहा है। मॉब लिंचिंग के आरोपी भाजपा नेताओं के मंच पर आगे बैठाए जा रहे हैं।
हालांकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मुद्दा ज्यादा कारगर नहीं साबित हुआ है। मंदिर आंदोलन से लेकर उग्र हिंदुत्व के दूसरे मुद्दों पर भाजपा कभी भी बहुमत के पास तक नहीं पहुंच पाई थी। पिछली बार उसे आकांक्षा की राजनीति को उभार कर बहुमत मिला था। फिर भी वह इस चुनाव में वापस घूम कर पुराने एजेंडे पर पहुंच गई है। इसका कारण यह है कि भाजपा को लग रहा है कि इस एजेंडे का विपक्ष के पास जवाब नहीं है, जबकि उपलब्धियों के प्रचार को गलत साबित करने वाले तर्क उनके पास हैं।
(साई फीचर्स)