कांग्रेस में क्या आगे बदलेगा नेतृत्व?

 

 

(बलबीर पुंज)

लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस महासचिव (पूर्वी उत्तरप्रदेश) प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपना आधिकारिक चुनावी अभियान गंगा यात्रा प्रारंभ कर दिया है। यह पहले से ही निश्चित था कि अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और इतिहास के कारण प्रियंका गांधी राजनीति में एक दिन प्रवेश जरूर करेंगी। किंतु यक्ष प्रश्न है कि आगामी आम चुनाव से कुछ सप्ताह पहले कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हे सक्रिय राजनीति में क्यों उतारा?

हाल ही में अपने चुनाव प्रचार के दिन प्रियंका गांधी एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहती हैं, देश और संस्थाओं पर आए संकट को देखकर मुझे घर से निकलना पड़ा है। आखिर प्रियंका के इस वक्तव्य के पीछे की वास्तविकता क्या है? क्या यह सत्य नहीं कि नेहरु-गांधी परिवार की वर्तमान पीढ़ी में वह पहली और एकमात्र ऐसी महिला हैं, जिसके मायके और ससुराल- अर्थात् मां, भाई और पति पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप है और सभी जमानत पर बाहर है?

स्वतंत्रता के बाद से जिस प्रकार कांग्रेस नेहरु-गांधी परिवार की छत्रछाया में रही है, उसमें निर्विवाद रूप से पं.नेहरु, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का एक करिश्माई व्यक्तित्व था और जनता को स्वयं से जोड़ने में सभी पारंगत भी थे। किंतु वर्तमान कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे राहुल गांधी में इन दोनों गुणों का नितांत अभाव है। इस मामले में फिलहाल प्रियंका, राहुल की तुलना में कहीं बेहतर है।

वर्ष 2004 से राहुल के दौर में कांग्रेस को कुछ अपवादों को छोड़कर कई चुनाव हारने का अनुभव हुआ है, उससे प्रियंका गांधी वाड्रा अभी तक मुक्त है। यही नहीं, राहुल अपनी निरंतर त्रुटियों की आदत और बौद्धिक ज्ञान के लिए सोशल मीडिया में उपहास का पात्र बनते है, उससे भी प्रियंका गांधी अबतक बची हुई हैं। किंतु क्या यह आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का भाग्य बदलने हेतु पर्याप्त होगा? इस पृष्ठभूमि में आवश्यक है कि देश के दो मुख्य राष्ट्रीय दल- सत्तारुढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस की वस्तुस्थिति का ईमानदार आकलन किया जाएं।

देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है- इसके कई कारण है। हाल ही केंद्र सरकार ने सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए बिना किसी सामाजिक कठिनाई और संवैधानिक संकट के 10 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया है। मध्यम वर्ग के लोगों को पांच लाख की वार्षिक आय पर कर में छूट देने का निर्णय लिया है, जिससे देश के लगभग 80 प्रतिशत करदाता लाभांवित होंगे।

प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के अंतर्गत किसानों को प्रतिवर्ष 6,000 रूपये देने की घोषणा की गई है। इस आय समर्थन योजना में 9 मार्च तक 2.6 करोड़ लाभार्थी किसानों के खातों में 2,000 रुपये के रूप में पहली किस्त स्थानांतरित भी कर दी गई है औ शेष 10 करोड़ किसानों को इस माह के अंत तक यह राशि पहुंचाने का लक्ष्य है। इन सभी किसानों को अप्रैल के पहले सप्ताह में दूसरी किस्त भी मिलने की संभावना है। यह बात सही है कि यह राशि बहुत कम है और देर से लिया गया निर्णय है- फिर भी किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने और उनकी आय को दोगुना करने की दिशा में यह एक ठोस केंद्रीय नीति की शुरुआत है।

आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जनआरोग्य योजना के अंतर्गत लक्षित 10 करोड़ लाभार्थियों में से 2 करोड़ को पांच लाख रूपये के मुफ्त चिकित्सा का स्वास्थ्य कार्ड जारी किया गया है, जिसमें से 12 लाख अधिक लोगों को मुफ्त उपचार भी मिल चुका है। वही भारत में हर घर के पूरी तरह विद्युतीकृत होने के साथ प्रधानमंत्री आवास योजना में 1.5 करोड़ परिवारों के लिए घर बनाए जा चुके हैं। उज्जवला योजना के तहत पांच वर्षों में 7 करोड़ घरों में मुफ्त एलपीजी रसोई गैस कनेक्शन वितरित कर दिए गए है। यही नहीं, वर्ष 2016 में गुलाम कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद इस वर्ष पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकवाद विरोधी हवाई अभियान ने न केवल भारतीयों में विजय की भावना पैदा की है, अपितु उसने भारत की कमजोर छवि को भी पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है।

राष्ट्रीय सुरक्षा और किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के साथ रोजगार भी महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है। भले ही विरोधी पक्ष देश में रोजगार नहीं होने और बेरोजगारी बढ़ने का आरोप लगाए, किंतु इससे संबंधित सच का एक पक्ष खाड़ी देशों से आई एक खबर में मिल जाता है। मध्यपूर्व एशिया में वेतन घटने से भारतीय प्रवासियों- जिसमें केरल और पंजाब के लोगों की संख्या सर्वाधिक होती है- उनपर आर्थिक संकट आ गया है और वह अपने घरों का रूख करने लगे है। इसका मुख्य कारण खाड़ी और मध्यपूर्व देशों की कमजोर अर्थव्यवस्था होने के साथ भारत में पिछले कुछ समय में न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि भी होना है। स्थिति यह हो गई है कि भारत में इन दिनों वेतन या तो अधिकांश खाड़ी देशों के समान हो गए है या फिर उससे अधिक हो गए है। भारतीय उद्योग परिसंघ की रिपोर्ट के अनुसार, मोदी सरकार की नीतियों और नोटबंदी-जीएसटी जैसे आर्थिक सुधारों के कारण मझोले और लघु उद्योग (एम.एस.एम.ई.) में पिछले चार वर्षों में हर साल 1.35 – 1.49 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है।

अब पिछले 58 माह में इसी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और सामरिक मामलों को लेकर देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक मजबूत, राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण और निर्णायक नेता के रूप में स्थापित हुए है। इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस की स्थिति क्या है? कांग्रेस नेतृत्व ने जैसे ही इस वर्ष 23 जनवरी को प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तरप्रदेश की जिम्मेदारी सौंपते हुए पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया, वैसे ही कांग्रेस नेताओं के साथ पार्टी समर्थक बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक वर्ग द्वारा विमर्श स्थापित करना प्रारंभ हो गया, जो अब भी हो रहा है कि प्रियंका गांधी में अपनी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी की झलक दिखती हैं। क्या लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार और उसके द्वारा किए गए कामों का मुकाबला करने के लिए, प्रियंका का गांधी परिवार से होना और उनकी एकमात्र लोकप्रिय उपलब्धि कि वह अपनी दादी जैसी दिखती हैं- काफी होगी?

स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी भी विशुद्ध गैर-कांग्रेसी सरकार ने वापसी नहीं की है। इसी आधार पर वर्तमान कांग्रेस, गांधी परिवार और उनके द्वारा देश में स्थापित बौद्धिक अधिष्ठान- जो पिछले सात दशकों से मीडिया, न्यायतंत्र, शिक्षा, नौकरशाही आदि क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है- वह आशांवित है कि मोदी सरकार का हश्र भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले राजग सरकार जैसा ही होगा, जो पांच वर्ष के पूर्ण कार्यकाल के बाद पुनः सत्ता में वापसी नहीं कर पाएं थे। क्या विभिन्न सर्वेक्षणों ने स्पष्ट नहीं किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता न केवल अक्षुण्ण है, अपितु वर्तमान कार्यकाल में उनके नेतृत्व से देश में हुए सकारात्मक परिवर्तन के कारण वह 2014 की तुलना में कई श्रेणियों में पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है?

वास्तविकता तो यह है कि जिस तरह 16वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमटकर रह गई थी, जिसमें गांधी परिवार की रायबरेली और अमेठी सीट मोदी लहर में बच गई थी- उसमें अमेठी में इस बार हार का खतरा मंडरा रहा है, तो रायबरेली में कड़ी चुनौती मिलने की संभावना है। सच तो यह है कि 17वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पर एक दल के रूप में स्वयं से अधिक नेहरु-गांधी वंश के राजनीतिक अस्तिव को बचाने का संकट है।

प्रियंका की 17वें लोकसभा चुनाव से चंद सप्ताह पहले बहुप्रतीक्षित राजनीतिक प्रवेश कांग्रेस- विशेषकर गांधी परिवार की मुख्य रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसके अंतर्गत पार्टी ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि प्रियंका को अल्पकाल में बड़ी जिम्मेदारी दी गई है, इसलिए किसी भी प्रतिकूल परिणाम की संभावना पर उन्हे उत्तरदायी घोषित नहीं किया जाए।

यदि परिणाम कांग्रेस के खिलाफ आते है, तो इस बात की प्रबल संभावना है कि पार्टी के भीतर विद्रोह होगा और नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठेगी। तब शायद कांग्रेस नेतृत्व का वह घिसा-पीटा तर्क काम न आएगा कि तीन बार के सांसद युवा राहुल के पास अनुभव नहीं है। ऐसी स्थिति पैदा होने पर तब कांग्रेस की जिम्मेदारी किसी गैर-पारिवारिक सदस्य को देने बजाय तुरंत प्रियंका को सौंप देगी, जिससे गांधी परिवार की कांग्रेस पर पकड़ बनी रहे और उनके द्वारा स्थापित बौद्धिक अधिष्ठान जीवित रह सकें।

क्या प्रियंका को लोकसभा चुनाव से एकाएक पहले कांग्रेस नेतृत्व द्वारा राजनीति में औपचारिक रूप से उतारना- कांग्रेस को आगामी चुनाव में पराजय के अनुमान और कांग्रेस नेतृत्व में परिवर्तन की संभावना की मौन स्वीकारोक्ति नहीं है? पाठकों के उत्तरों की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।

(साई फीचर्स)