ईमानदार हैं तो आलोचनाओं से क्या डर . . .?

 

 

अरब में दूर-दूर तक फैले हुए साम्राज्य की शासक एक महिला थी। उसके साम्राज्य में हर ओर खुशहाली छाई थी। वह समय-समय पर अपनी प्रजा के बीच जाकर उनकी सुख-शांति की खबर लेती रहती थी। एक बार जब वह राज्य भ्रमण करके लौटी तो एक राज्य अधिकारी उनसे बोला, महारानी, मैंने इस भ्रमण के दौरान देखा कि चारों ओर लोगों को आपकी न्यायप्रियता, निष्पक्ष व्यवस्था एवं सेवा-भाव से पूर्ण संतोष है। लेकिन फिर भी कुछ ऐसे लोग हैं जो लगातार आपकी आलोचना करते हैं। ऐसे लोगों को दंडित करना जरूरी है।

इसपर साम्राज्ञी गंभीर होकर बोलीं, मैं एक बड़े साम्राज्य की शासक हूं। प्रजा मेरा सम्मान करती है और मुझे अपने दुख से अवगत कराती रहती है। मेरा एक इशारा आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए काफी है। लेकिन ऐसे लोगों को दंडित करके हम अपना समय और शांति क्यों नष्ट करें? वैसे भी इस दुनिया में कोई भी कितना ही अच्छा क्यों न हो, लोगों को उसकी आलोचना करने का पहलू मिल ही जाता है। मुझे स्वयं पर पूर्ण विश्वास है, इसलिए मैं उन लोगों की आलोचना से बेवजह क्यों डरूं?

वैसे भी एक शासक को यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए कि वह आलोचनाओं की तरफ ध्यान न देते हुए अपने काम को ईमानदारी व न्यायप्रियता से करता चले। ऐसे में शासक के कार्य देखकर आलोचकों के मुंह स्वयं बंद हो जाएंगे। उसे इन आलोचकों के खिलाफ कुछ करने की जरूरत ही नहीं।

सम्राज्ञी की बात सुनकर राज्य अधिकारी बोला, महारानी जी, आज हमें आपकी सफलता का सूत्र पता चल गया है। निश्चित रूप से आलोचनाओं से घबराकर व्यक्ति अपने सामान्य कार्य में भी व्यवधान उत्पन्न कर देता है। इसलिए मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूं। हम ऐसे ही कार्य करते रहेंगे जैसे अभी तक करते आए हैं।इसके बाद वह सम्राज्ञी को सिर नवाकर चला गया।

(साई फीचर्स)