राहुल गांधी से सियासी लक्ष्मण रेखा खिंचवा रहे सिपाहसलार!

लिमटी की लालटेन 371
अड़ानी के राजस्थान में निवेश के स्वागत पर राहुल का नरम रवैया!
(लिमटी खरे)
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को जिस तरह का समर्थन मिल रहा है उससे कांग्रेस के आला नेता बहुत ज्यादा उत्साहित नजर आ रहे हैं। इससे ज्यादा अच्छी बात यह भी मानी जा सकती है कि इस यात्रा में राहुल गांधी के द्वारा जिस तरह की भाव भंगिमाएं, आचार विचार, रहन सहन अपनाया जा रहा है उससे उनके विरोधियों को उनके खिलाफ बोलने के लिए बहुत ज्यादा मसाला नहीं मिल पा रहा है। यात्रा के बीच ही राजस्थान में दुनिया के नंबर दो अमीर बन चुके गौतम अड़ानी के द्वारा राजस्थान में किए गए निवेश का मामला भी तेजी से तूल पकड़ता दिखा। इस मामले में पालीटिकल गासिप्स को हवा देने वाले लोगों ने इसे गांधी परिवार और राजस्थान के निजाम अशोक गहलोत के बीच दूरियां बढ़ने के संकेत भी बताने से गुरेज नहीं किया।
राहुल गांधी के द्वारा यात्रा के बीच ही कर्नाटक के मण्डया में शनिवार 08 अक्टूबर को एक पत्रकार वार्ता का आयोजन किया गया। इस प्रेस कांफ्रेंस पर सबकी नजरें गड़ी हुई थीं, क्योंकि इसमें पत्रकारों के द्वारा राजस्थान में गौतम अड़ानी के द्वारा किए गए निवेश का स्वागत कांग्रेस के मुख्यमंत्री के द्वारा किए जाने पर सवाल दागे जा सकते थे।
इस पत्रकार वार्ता के अंत में एक सवाल पर कांग्रेस के मीडिया सलाहकार जयराम रमेश की तमाम आपत्तियों को दरकिनार करते हुए अशोक गहलोत के कदम को सही ठहराते हुए राहुल गांधी ने कहा कि उद्योगपति गौतम अड़ानी के द्वारा राजस्थान में निवेश करने का फैसला लिया गया है और अशोक गहलोत के द्वारा उनका स्वागत किया गया है तो इसमें गलत क्या है! उन्होंने कहा कि देश के किसी भी राज्य में वहां का मुख्यमंत्री साठ हजार करोड़ के निवेश को कैसे ठुकरा सकता है! और उसे ठुकराना भी नहीं चाहिए।
राहुल गांधी ने कहा कि वे न तो कार्पोरेट अवधारणा के विरोधी हैं और न ही किसी उद्योगपति के द्वारा अगर कहीं निवेश किया जा रहा है तो उसे ही गलत मानते हैं। यहां आपको बता दें कि राहुल गांधी अक्सर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हुए कुछ उद्योगपतियों को उनका मित्र बताते हैं जिसमें गौतम अड़ानी का नाम प्रमुखता से उनके द्वारा लिया जाता है। इस बारे में राहुल गांधी ने साफ करते हुए कहा कि उनकी आपत्ति महज राजनैतिक रसूख का प्रयोग कर कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों का एकाधिकार या मोनोपली स्थापित करने का अवसर देने पर है। राहुल गांधी के द्वारा इसकी व्याख्या जिस तरह से की है उस पर राजनैतिक बहस अगर आरंभ हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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आजादी के बाद अब तक का इतिहास इस बात का साक्षी है कि सियासी आरोप प्रत्यारोप लगाना स्वाभाविक प्रक्रिया है, पर इसमें व्यक्तिगत आरोप उचित नहीं होते हैं। बीसवीं सदी के अंत तक आरोप प्रत्यारोपों से सेना, व्यापार, विदेश नीति आदि को प्रथक रखा जाता था। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में यह नीति डगमगाती दिखी पर लंबे अंतराल के उपरांत एक बार फिर दो धु्रवों के बीच दूरी पटती नजर आ रही है। यहां यह भी उल्लेखनीय होगा कि व्यापारिक क्षेत्र में उद्योगपतियों के नाम लेकर उन्हें सरकार का करीबी बताने वाले राहुल गांधी संभवतः पहले नेता बन गए हैं।
जानकारों का मानना है कि इस तरह की बयानबाजी से राजनीति और उद्योग के क्षेत्र के बीच खिंची बहुत ही महीन सी रेखा मिटती नजर आने लगी, जिसके दीर्घकालिक दुष्परिणाम आने का खतरा भी मण्डराता दिख रहा था। इतना ही नहीं इस तरह के कदम से कांग्रेस पार्टी की छवि उद्योगपतियों और उद्योगों के खिलाफ बनती दिख रही थी। राहुल गांधी ने बहुत ही समझदारी के साथ उस महीन रेखा को एक बार फिर स्थापित करने का प्रयास किया है। मगर उन्हें इस बात का ध्यान रखना होगा कि आने वाले समय में कहीं एक बार फिर चुनावी नफा नुकसान, वोट की राजनीति में यह लक्ष्मण रेखा पार न कर ली जाए।
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(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)