असली मसला प्रक्रिया का है

 

 

(हरी शंकर व्यास)

लोकतंत्र के मजबूत होने और फलने – फूलने की एकमात्र जरूरी शर्त यह होती है कि उसकी संस्थाएं नियम और प्रक्रिया के तहत काम करती रहें। जब संस्थाओं के नियम टूटते हैं और कामकाज में प्रक्रिया का पालन नहीं होता है तो उन संस्थाओं का इकबाल धीरे धीरे खत्म होने लगता है। कई बार यह काम अनजाने में होता है और कई बार जान बूझकर ऐसा किया जाता है। भारत और पाकिस्तान दोनों आज जिस स्थिति में हैं वह अपनी संस्थाओं के कारण हैं और अमेरिका. ब्रिटेन या दूसरा कोई विकसित देश जिस स्थिति में है वह भी अपनी संस्थाओं के कारण ही है। विकसित देशों में न प्रशासन व्यक्ति केंद्रित होता है और न संस्थाएं व्यक्तियों के अधीन होती हैं। वहां व्यक्ति व्यवस्था का हिस्सा होता है और जो कुछ भी होता है वह एक निश्चित प्रक्रिया के तहत होता है, जिससे लोगों का भरोसा बना होता है। वहां ये आरोप नहीं लगते हैं कि संस्थाएं किसी खास मकसद से कोई काम कर रही हैं।

अमेरिका, इजराइल, जापान, ब्रिटेन जैसे अनेक विकसित और सभ्य देशों में पक्ष और विपक्ष के नेताओं पर अलग अलग किस्म के आरोप लगे। कभी यह सुनने को नहीं मिला कि आरोपी नेता की पार्टी के लोग कहें कि उन्हें फंसाया जा रहा है या साजिश हो रही है। संस्थाओं की जांच पर कभी सवाल नहीं उठे। ऐसे भरोसे से संस्थाओं का निर्माण होता है और उनसे लोकतंत्र मजबूत होता है।

पर पाकिस्तान या बनाना रिपब्लिक कहे जाने वाले लैटिन अमेरिकी, अफ्रीकी देशों की नियति है कि वहां मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण नहीं हुआ। न्यायपालिका, जांच एजेंसियां, मीडिया, विधायिका आदि का स्वतंत्र और निष्पक्ष स्वरूप नहीं बना। तभी जिसकी सरकार बनी यानी जिसके हाथ में लाठी आई उसने अपने हिसाब से संस्थाओं का इस्तेमाल किया। पाकिस्तान के तीन हुक्मरानों के राजकाज और उनकी नियति की मिसाल दी जा सकती है। बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ तीनों बेहद ताकतवर रहे। पर तीनों के ऊपर सत्ता से हटने के बाद भ्रष्टाचार के आरोप लगे। जेल काटनी पड़ी। देश निकाला झेलना पड़ा। ऐसा इसलिए है क्योंकि विधायिका, न्यायपालिका, सेना, जांच एजेंसियां किसी का भी स्वतंत्र व निष्पक्ष ढांचा नहीं बना और न इनका स्वरूप अराजनीतिक रहा।

संयोग से भारत में काफी हद तक संस्थाओं का स्वरूप अराजनीतिक रहा और उनका बुनियादी सिद्धांत स्वतंत्रता व निष्पक्षता वाला रहा। पर यह स्थिति तभी तक रही, जब तक देश में मोटे तौर पर एक पार्टी का शासन रहा। जब तक कांग्रेस का कोई मजबूत और स्थायी विकल्प नहीं था। कांग्रेस को अकेले शासन करना था इसलिए उसे संस्थाओं से ज्यादा छेड़छाड़ की जरूरत नहीं थी और न एकाध अपवादों को छोड़ कर हमेशा विपक्ष के पीछे पड़े रहने की जरूरत थी। पिछले दो – तीन दशक से जब से कांग्रेस कमजोर हुई है और भाजपा के रूप में स्थायी विपक्ष पैदा हुआ है तब से संस्थाओं का चरित्र प्रभावित होने लगा है।

(साई फीचर्स)

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