मतदाताओं के विवेक की परीक्षा

 

 

(अजित द्विवेदी)

इस बार का लोकसभा चुनाव भाजपा और कांग्रेस या भाजपा गठबंधन बनाम कांग्रेस गठबंधन का मुकाबला नहीं है। कांग्रेस ने भी और कई प्रादेशिक क्षत्रपों ने इसका प्रयास किया था कि चुनाव भाजपा या नरेंद्र मोदी बनाम अन्य बनाया जाए। ममता बनर्जी ने वन ऑन वन चुनाव का जुमला भी बोला था। पर खुद उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया कि चुनाव वन ऑन वन का यानी भाजपा के मुकाबले विपक्ष के उम्मीदवार वाला हो। उनके अपने राज्य में कहीं त्रिकोणात्मक तो कहीं चारकोणीय लड़ाई हो रही है। हैरानी की बात है कि लेफ्ट और कांग्रेस दोनों भाजपा के विरोध में ताल ठोंक कर रहे हैं पर उनके बीच भी सीटों पर सहमति नहीं बनी और दोनों भी आमने सामने लड़ रहे हैं।

पश्चिम बंगाल की तीन भाजपा विरोधी पार्टियां अलग अलग लड़ रही हैं। तीनों अपना मुकाबला भाजपा से बता रही हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या सचमुच बंगाल में भाजपा इतनी मजबूत है तीन बड़ी पार्टियां उससे मुकाबला कर रही हैं? पर असल में ऐसा नहीं है। पर तीनों पार्टियों ने भाजपा विरोध की अपनी राजनीति के कारण उसे इतना स्पेस दिया है कि वह हर सीट पर तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले मुख्य विपक्षी पार्टी दिख रही है। पश्चिम बंगाल के जैसी स्थिति कई राज्यों में बन गई है, जहां मतदाताओं के विवेक की परीक्षा है। खास कर उन मतदाताओं के विवेक की, जो भाजपा के विरोध में हैं और जिनको भाजपा की हार सुनिश्चित करनी है। व्यक्तिगत रूप से मतदाताओं के अलावा अलग अलग राज्यों में ऐसे मतदाता समूह हैं, जिनको सुनिश्चित करना है कि भाजपा न जीते। पर वे कैसे सुनिश्चित करेंगे कि भाजपा के उम्मीदवार से किस पार्टी का उम्मीदवार लड़ रहा है?

यह दुविधा पश्चिम बंगाल के अलावा सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में है। थोड़े समय पहले तक ऐसा लग रहा था कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन में कांग्रेस को भी जगह मिल जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। जब ऐसा नहीं हुआ तो भाजपा की हार सुनिश्चित करने के लिए रणनीति रूप से पीछे हटने और सपा, बसपा, रालोद गठबंधन को समर्थन देने की बजाय कांग्रेस ने जम कर लड़ने का फैसला किया। राहुल गांधी ने फ्रंटफुट पर खेलने का जुमला बोला। तभी राज्य के बड़े मतदाता समूहों के सामने दुविधा है।

राज्य में मुस्लिम, दलित, यादव और मतदाताओं के संख्या 50 फीसदी से ज्यादा है। इस वोट को ध्यान में रख कर सपा, बसपा, रालोद ने गठबंधन बनाया है। और मोटे तौर पर माना जा रहा है कि सामाजिक समीकरणों की वजह से यह वोट समूह या इस वोट समूह की बहुसंख्या भाजपा का विरोध करेगी। पर कांग्रेस के कारण मतदाताओं में कंफ्यूजन बढ़ा है। अब भाजपा विरोधी मतदाताओं को अपने विवेक से तय करना है कि वे किसी वोट देंगे। कांग्रेस हर सीट पर त्रिकोणात्मक लड़ाई बनाने का प्रयास कर रही है। भाजपा इस भरोसे में है कि कांग्रेस जितना जोर लगा कर लड़ेगी उसकी जीत उतनी आसान होगी। पर असल में ऐसा नहीं है। असल में मतदाताओं का विवेक उनको जितना धोखा देगा, उतनी ही भाजपा की राह आसान होगी। अगर ऐसी स्थिति में मतदाताओं नीर, क्षीर, विवेक में कामयाब रहे तो भाजपा की राह बहुत मुश्किल हो जाएगी।

यह भारतीय राजनीति की विडंबना है कि महीनों और बरसों से भाजपा और उसकी केंद्र सरकार का विरोध कर रही पार्टियां ऐन चुनाव के मौके पर साझा मोर्चा नहीं बना सकीं। जैसे बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने तमाम छोटी पार्टियों को मिला कर मोर्चा बना लिया और यह सुनिश्चित किया कि भाजपा गठबंधन के हर उम्मीदवार के मुकाबले विपक्ष का एक उम्मीदवार हो। उसी तरह उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में हो सकता था। इन दोनों राज्यों के नेता भाजपा को हराने के लिए कम नहीं छटपटा रहे थे। पर ऐन मौके पर उन्होंने किसी अदृश्य खतरे या चेतावनी की चिंता में कदम पीछे खींच लिए। इससे भाजपा और कथित तौर पर सांप्रदायिकता व फासीवादी ताकतों से लड़ने की उनकी निष्ठा संदिग्ध हो गई है। तभी मायावती और ममता बनर्जी के चुनाव बाद की रणनीति को लेकर सवाल उठ रहे हैं।

असल में भारत में राजनीतिक पार्टियों की वैचारिक व सैद्धांतिक निष्ठा हमेशा सवालों के घेरे में रही है। पार्टियों इसे तरजीह नहीं देती हैं। इसकी बजाय नेताओं का अपना निजी हित और पार्टी का हित सबसे ऊपर होता है। तभी उनके गंभीर और बड़े राजनीतिक फैसले भी इस बात पर आधारित होते हैं कि उससे उन्हें और उनकी पार्टी को क्या फायदा होने वाला है। प्रादेशिक पार्टियों में यह प्रवृत्ति ज्यादा है पर ऐसा नहीं है कि कांग्रेस और भाजपा इससे अछूते हैं। इसी चुनाव में अगर बसपा ने या तृणमूल कांग्रेस ने दूरदर्शिता नहीं दिखाई या भाजपा का सिर्फ जुबानी विरोध करते रहे तो कांग्रेस ने राजनीतिक बाध्यता समझ कर अपने हितों की कुर्बानी दी और भाजपा के खिलाफ व्यापक गठबंधन बनाया। उसने भी पार्टी के हितों को अपनी वैचारिक व सैद्धांतिक लड़ाई से ऊपर रखा है। यहीं काम अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी किया है। इनके मुकाबले बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के प्रादेशिक क्षत्रपों ने ज्यादा समझदारी दिखाई है। उन्होंने अपनी वैचारिक लाइन और नेता व पार्टी के हितों के बीच संतुलन बनाया है। मोटे तौर पर भाजपा के मुकाबले विपक्ष का साझा उम्मीदवार उतारने की स्थिति बनाई है। पर जिन राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया है वहां मतदाताओं के विवेक पर सब कुछ निर्भर करेगा।

ध्यान रहे पिछले चुनाव में 69 फीसदी वोट भाजपा के विरोध में पड़े थे। भाजपा 31 फीसदी वोट लेकर 282 सीटों पर जीती थी। एक तरफ भाजपा अपने वोट को बढ़ाने की राजनीति कर रही थी तो दूसरी ओर विपक्ष को 69 फीसदी वोट को एकजुट करना था। भाजपा अपने मकसद की ओर ठोस कदमों से बढ़ी है पर विपक्ष का प्रयास आखिरी समय में बिखर गया। कम से कम तीन बड़े और कुछ छोटे छोटे राज्यों में हैं। वहां भाजपा विरोधी मतदाता को अपने विवेक से फैसला करना है कि उसका वोट पिछली बार की तरह खराब न हो।

(साई फीचर्स)

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