विपक्ष के लिए नसीहत से कम नहीं माने जा सकते हैं राज्य सभा चुनाव के परिणाम

लिमटी की लालटेन 613

राज्य सभा चुनावों में जिस तरह का खेला हुआ वह लोकतंत्र के लिए है घातक

(लिमटी खरे)

उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और हिमालच प्रदेश में राज्य सभा के 15 सदस्यों के लिए हुए चुनाव इस समय सुर्खियों में हैं। विधायकों के द्वारा अपनी पार्टी के प्रत्याशियों या आलाकमान की मंशाओं के विपरीत जाकर की गई वोटिंग चौंकाने वाली मानी जा सकती है। इसकी महज निंदा करने से काम नहीं चलने वाला क्योंकि इस तरह की घटनाएं देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव को हिलाने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती हैं।

जिन भी विधायकों ने अपना मत किसी अन्य दल के उम्मीदवार को दिया है उससे तो यही साबित होता है कि उन विधायकों की आस्था उनके अपने दल के प्रति समाप्त हो चुकी है। वैसे तो किसी भी दल का सांसद अथवा विधायक चुने जाने के बाद वह देशहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए पार्टी लाईन से बाहर जाकर भी काम कर सकता है। पार्टी के नेता भले ही इससे नाराज हों पर संविधान उसे इस तरह का कदम उठाने की इजाजत देता है।

पूरे घटनाक्रम पर अगर नजर डालें तो आप पाएंगे कि इसमें सबसे ज्यादा नुकसान में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ही रही है। जिस तरह की चर्चाएं उत्तर प्रदेश के सियासी बियावान में चल रही हैं, उनके अनुसार समाजवादी पार्टी के द्वारा जिन और जिस तरह से प्रत्याशियों का चयन किया गया था, वह सहयोगी दलों को शायद रास नहीं आया। इसके अलावा जिस तादाद में विधायकों ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को नकारा है वह भी अनेक प्रश्न खड़े करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।

उर्जा, आत्मविश्वास से लवरेज भारतीय जनता पार्टी के द्वारा उत्तर प्रदेश में अपना आठवां उम्मीदवार भी मैदान में उतार दिया था। क्या ये संकेत भी समाजवादी पार्टी सहित उनके सहयोगी दलों के लिए पर्याप्त नहीं थे। क्या यह सब देखने सुनने के बाद भी पार्टी के नेतृत्व को अपने बिखरे कुनबे की सुध नहीं लेना चाहिए था! विधायकों को संतुष्ट करने के लिए उनका मन टटोलने की जवाबदेही किसकी थी।

आधी सदी से ज्यादा समय तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी आजादी के उपरांत अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। हिमाचल प्रदेश में 68 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस पार्टी पास 40 विधायक होने के बाद भी राज्य सभा में उसके उम्मीदवार ने जिस तरह मुंह की खाई है, उस स्थिति से क्या कांग्रेस आलाकमान अनिभिज्ञ थे! हिमाचल प्रदेश में राज्य सभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के 40 में से 06 विधायकों ने भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाला है। इस तरह कांग्रेस की भद्द पिटना स्वाभाविक ही है। कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों को 34-34 मत मिले तब ड्रा के जरिए परिणाम घोषित हुए।

दो तीन महीने में ही लोकसभा चुनाव हैं, तब उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेशों में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी आदि किला कैसे फतह कर पाएंगे! क्या तब भी ईवीएम को ही दोष देकर खानापूर्ति की जाएगी! अब कांग्रेस की सरकार के सामने संकट खड़ा हुआ है। पार्टी अगर अपने विधायकों के खिलाफ कोई कठोर कदम उठाती है तो सरकार गिरने का खतरा मण्डराता रहेगा। कुल मिलाकर शह और मात के इस खेल में कांग्रेस पिछड़ती दिख रही है और कांग्रेस के पिछड़ने के पीछे इकलौती वजह कांग्रेस के आला नेताओं के कथित सलाहकारों की फौज को ही माना जा सकता है जिनकी सलाह के चलते ही कांग्रेस अपने ही पाले में एक के बाद एक गोल दागती नजर आ रही है।

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उत्तर भारत के दोनों राज्यों में जिस तरह का खेला हुआ है, उसका सीधा असर आने वाले आम चुनावों में देखने को मिल सकता है। इस तरह की रणनीति के भरोसे विपक्ष अगर आम चुनावों में भाजपा को पराजित करने की बात सोच रहा है तो संस्कृत की एक लाईन न दिवा स्वपनं कुर्यातअर्थात दिन में सपने नहीं देखना चाहिए नेताओं पर पूरी तरह फिट बैठती है। देश भर में विपक्षी दलों के कदमतालों पर चर्चा हो रही है। उनका हास परिहास हो रहा है। उनकी गलतियां गिनाईं जा रही हैं, पर पता नहीं विपक्षी दलों के आला नेताओं को यह सब समझ क्यों नहीं आ पा रहा है।

वैसे देखा जाए तो सिद्धांत आधारित राजनीति आज के युग में शायद प्रासंगिक नहीं रह गई है। इसीलिए सरकार बनाते समय, राज्य सभा चुनावों के वक्त या विधान सभा या लोकसभा चुनावों के पहले सांसद, विधायक आदि पाला बदल लें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पिछले लगभग आधे दशक से एक बात तो साफ तौर पर परिलक्षित होती दिख रही है कि भाजपा अपने लक्ष्य को लेकर चल रही है और उससे वह डिग भी नहीं रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्व में संकेत दे चुके हैं कि भाजपा का तीसरा कार्यकाल कठोर निर्णय लेने वाला होगा। इसके लिए उसके द्वारा उच्च सदन अर्थात राज्य सभा में अपनी पार्टी के लिए बहुमत जुटाने का काम बखूबी किया जा रहा है ताकि लोकसभा के साथ ही साथ राज्य सभा में भी उन फैसलों जिनके बारे में नरेंद्र मोदी ने कठोर फैसले कहकर इशारा किया था को पारित करवाने में भाजपा को ज्यादा मेहनत न करना पड़े।

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(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)

 

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